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( 8 ) ( उस) बहुत सम्पदा से क्या (लाभ है) जो कृपणों के घर में होती है ? समुद्र का जल खार से भरा हुआ ( रहता है) (इसलिये) (उस) पानी को कोई नहीं पीता है।
(9) हे मनुष्य! पात्रों के लिए थोड़ा (कुछ) दिया हुआ ( भी ) बहुत होता है । पृथ्वी पर पड़ा हुआ वट का ( छोटा सा ) बीज बड़ा विस्तार ले लेता है ।
(10) बहुत कहे गये से क्या (लाभ) ? जो अपने लिए प्रतिकूल ( है ) उसको कैसे भी ( किसी भी तरह) दूसरों के लिए मत करो । यह ही धर्म का मूल है।
( 11 ) वह ही धर्म शुद्ध ( है ) जो पूरी तरह (स्व) काया से ( अपने आप से) किया जाता है। (और) वह ( ही ) धन उज्ज्वल ( है ) जो न्याय से आता है ।
(12) और भी जो (मनुष्य) जहाँ (जैसा) उपकार कर सकता है वह वहाँ ( वैसा) उपकार करे । हे मनुष्य ! (तू) जीवन के लाभ को ग्रहण करके देह को निरर्थक मत बना |
(13) अनियन्त्रित इन्द्रिय ( जब ) एक (विषय) में ( ही लीन होती है) तो (व्यक्ति) सैकड़ों दुःखों को प्राप्त करता है । फिर जिसकी पाँचों ( ही इन्द्रियाँ) स्वच्छन्द हैं, उस (व्यक्ति) का क्या पूछा जाए ?
( 14 ) हे मनुष्य ! यदि (तू) विपुल सुखों को चाहता है, (तो) सन्तोष कर । सूर्य को छोड़कर उन कमलों के लिए और कौन हर्ष ( प्रदान) करता है ?
( 15 ) दुर्लभ मनुष्य - जन्म को पाकर जिसके द्वारा ( वह) भोगों के लिए लगा दिया गया ( है ) उसके द्वारा ईंधन के प्रयोजन से कल्पतरु मूल से काटा गया ( है ) ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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