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घत्ता -
मेल्लेप्पिणु णायर-लोऍण महु घरे उभा करेंवि कर। जो दुज्जसु उप्परें धित्तउ एउ ण जाणहाँ एक्कु पर'॥9॥
83.4
तहिँ अवसरे रयणासव-जाएं वोल्लाविय एत्तहें वि तुरन्तें। - विण्णि वि विण्णवन्ति पणमन्तिउ 'देव देव जइ हुअवहु डज्झइ जइ पायाले णहङ्गणु लोट्टइ जइ उप्पज्जइ मरणु कियन्तहाँ जइ अवरें उग्गमइ दिवायरु एउ असेसु वि सम्भाविज्जइ
कोक्किय तियड विहीसण-राएं॥1॥ लङ्कासुन्दरि तो हणुवन्ते ।।2।। सीय-सइत्तण-गव्वु वहन्तिउ॥3॥ जइ मारुउ पड-पोट्टलें वज्झइ॥4॥ कालन्तरेण कालु जइ तिट्टइ॥5॥ जइ णासइ सासणु अरहन्तहों॥6॥ मेरु-सिहरें जइ णिवसइ सायरु॥7॥ सीयहें सीलु ण पुणु मइलिज्जइ॥8॥
घत्ता
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जइ एव वि णउ पत्तिज्जहि तो परमेसर एउ करें। तुल-चाउल-विस-जल-जलणहँ पञ्चहँ एक्कु जि दिव्वु धरै ॥9॥
83.5
तं णिसुर्णेवि रहुवइ परिओसिउ
‘एव होउ' हक्कारउ पेसिउ॥1॥
घत्ता -
'चडु पुप्फ-विमाणे भडारिएँ मिलु पुत्तहँ पइ-देवरहँ। सहुँ अच्छहिँ मज्झें परिट्ठिय पिहिमि जेम चउ-सायरहँ॥9॥
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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