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पडियउ
सयलु
जगु
कम्म
करइ
अयाणु
मोक्खहं
कारणु
एक्कु
खणु
ण
वि
चिंतइ
अप्पाणु
7.
अण्णु
म
जाहि
अप्पणउ
घरु
परिय
तणु
इट्टु
कम्मायत्तउ
कारिमउ
आगमि
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(पड - पडिय - पडियअ) भूकृ 1 / 1
'अ' स्वार्थिक
(सयल) 1 / 1 वि
(जग) 1 / 1
(कम्म) 2/2
(कर) व 3 / 1 सक
(अयाण) 1/1 वि
( मोक्ख ) 6 / 1
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(कारण) 2/1
(एक्क) 1 / 1 वि
(खण) 1 / 1
अव्यय
अव्यय
( चिंत) व 3 / 1 सक
( अप्पाण) 2/1
[ ( कम्म) + (आयत्तउ ) ]
[ ( कम्म) - (आयत्तअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक]
( कारिमअ) 1 / 1 वि
( आगम) 7/1
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन पृष्ठ-151
(अण्णा) 1 / 1 वि
अव्यय
(जाण) विधि 2 / 1 सक
( अप्पणअ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
(घर) 2 / 1
(परियण) 2/1
( तणु) 2 / 1
( इट्ठ) 2 / 1 वि
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पड़ा हुआ
सकल
जगत
कर्मों को
करता है
ज्ञानरहित
मोक्ष के
कारण
एक
क्षण
नहीं
भी
विचारता है।
आत्मा को
अन्य
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मत
अपनी
घर
नौकर-चाकर
शरीर
च्छ वस्तु
कर्मों के अधीन
बनावटी
आगम में
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