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पाठ - 15
परमात्मप्रकाश
1.
पुणु पुणु पणविवि पंच-गुरु भावें चित्ति धरेवि। भट्टपहायर णिसुणि तुहुँ अप्पा तिविहु कहेवि॥
2.
अप्पा ति-विहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ। मुणि सण्णाणे णाणमउ जो परमप्प-सहाउ।।
मूदु वियक्खणु बंभु परु अप्पा ति-विहु हवेइ। देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूदु हवेइ॥
देह-विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ। परम-समाहि-परिहिटउ पंडिउ सो जि हवेइ॥
5.
अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म-विमुक्त जेण। मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो परु मुणहि मणेण॥
णिच्चु णिरंजणु णाणमउ परमाणंद-सहाउ। जो एहउ सो संतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ॥
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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