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(15) हे मूर्ख! न नदियों से, न झीलों से, न तालाबों से, न ही उद्यानों और वनों से देश सुन्दर होते हैं। (वे) (तो) सज्जनों द्वारा बसे हुए होने के कारण ही सुन्दर (होते हैं)।
(16) एक कुटिया पाँच (व्यक्तियों) द्वारा रोकी हुई है। उन पाँचों की भी बुद्धि अलग-अलग है। हे बहिन! कहो, वह घर कैसे हर्ष मनानेवाला (होगा)। जहाँ कुटुम्ब स्वच्छन्दी (हो)?
___(17) अन्य (इन्द्रियाँ) जिसके अधीन हैं, (ऐसी) प्रमुख रसना इन्द्रिय को वश में करो। मूल के समाप्त हो जाने पर तुम्बिनी के पत्ते अवश्य ही निराधार (म्लान) (हो जाते हैं)।
(18) सम्पूर्ण कषाय की सेना को जीतकर, जगत् को अभय (दान) देकर, महाव्रतों को ग्रहण करके, तत्त्व का ध्यान करके (व्यक्ति) मोक्ष प्राप्त करते हैं।
(19) निज धन को देने के लिए (तत्पर होना) दुष्कर (है), तप को करने के लिए (कोई) दिखाई नहीं देता है। इसी प्रकार सुख को भोगने के लिए (तो) मन (तत्पर रहता है), किन्तु (उसको) भोगने के लिए (कोई) (प्रयास) उत्पन्न नहीं होता है।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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