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णिएइ
परम-समाहि-परिट्ठियउ
पंडिउ
सो
जि
हवे
5.
अप्पा
लद्धउ
णाणमउ
कम्म-विमुक्
जेण
मेल्लिवि
सयलु
वि
दव्वु
परु
च
3 2
परु
मणेण
6.
णिच्चु
णिरंजणु
णाणमउ
परमाणंद-सहाउ
合
एहउ
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(णिअ) व 3 / 1 सक
[(परम) वि - ( समाहि) - (परिट्ठियअ) भूक
2 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक]
(पंडिअ ) 1/1 सवि
(त) 1 / 1 सवि
अव्यय
( हव) व 3 / 1 अक
( अप्प ) 1 / 1
(लद्धअ) भूक 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
( णाणमअ) 1 / 1 वि
[(कम्म) - (विमुक्क) 3 / 1 वि]
(ज) 3 / 1 स
(मेल्ल + इवि ) संकृ
(सयल) 2 / 1 वि
अव्यय
( दव्व) 2/1
( पर) 2 / 1 वि (त) 1 / 1 सवि
( पर) 1 / 1 वि
(मुण) विधि 2 / 1 सक
(मण) 3 / 1 क्रिया वि. की तरह प्रयुक्त
( णिच्च) 1 / 1 वि
( णिरंजण) 1 / 1 वि
( णाणमअ) 1 / 1 वि
[(परम) + (आनंद) + (सहाउ ) ] [(परम) वि-(आणंद)-(सहाअ) 1 / 1 ]
(ज) 1 / 1 सवि
( एहअ ) 2 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
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देखता है (समझता है ) परम समाधि में ठहरे हुए
जाग्रत ( तत्त्वज्ञ)
वह
ही
होता है
आत्मा
प्राप्त किया गया
ज्ञानमय
कर्मरहित होने के कारण
जिसके द्वारा
छोड़कर
सकल
द्रव्य को
पर
वह
सर्वोच्च
समझो
रुचिपूर्वक
नित्य
निरंजन
ज्ञानमय
परमानन्द स्वभाव
जिसने
ऐसी
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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