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________________ वह सिउ (त) 1/1 सवि (संत) भूकृ 1/1 अनि (सिअ) 1/1 वि (त) 6/1 स (मुण+इज्ज+हि) विधि 2/1 सक (भाअ) 2/1 सन्तुष्ट हुआ मंगलयुक्त उसकी तासु समझ मुणिज्जहि भाउ अवस्था को जो णिय-भाउ निज स्वभाव को नहीं छोड़ता है परिहाइ जो पर-भाउ पर स्वभाव को नहीं लेइ . जाणइ (ज) 1/1 सवि [(णिय) वि-(भाअ) 2/1] अव्यय (परिहर) व 3/1 सक (ज) 1/1 सवि [(पर) वि-(भाअ) 2/1] अव्यय (ले) व 3/1 सक (जाण) व 3/1 सक (सयल) 2/1 वि अव्यय (णिच्च) 1/1 वि (पर) 1/1 वि (त) 1/1 सवि (सिअ) 1/1 वि (संत) भूकृ 1/1 अनि (हव) व 3/1 अक ग्रहण करता है जानता है सकल को सयलु णिच्चु प नित्य सर्वोच्च वह मंगलयुक्त सन्तुष्ट हुआ बनता है (बना है) हवेइ जासु वण्णु (ज) 6/1 स जिसका अव्यय (वण्ण) 1/1 विधि अर्थ के मध्यम पुरुष के एकवचन में 'इज्जहि' प्रत्यय वैकल्पिक रूप से प्राप्त होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-175) अपभ्रंश काव्य सौरभ 346 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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