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पाठ - 1
पउमचरिउ
सन्धि - 22
कोसलणन्दणेण आसाढट्ठमिहिँ
स-कलत्ते णिय-घरु आएं। किउ ण्हवणु जिणिन्दहों राएं।
22.1
सुर-समर-सहासेंहिँ दुम्महेण पट्ठवियइँ जिण-तणु-धोवयाइँ सुप्पहहँ णवर कञ्चुइ ण पत्तु 'कहें काइँ णियम्विणि मणे विसण्ण पणवेप्पिणु वुच्चइ सुप्पहाएँ जइ हउँ जे पाणवल्लहिय देव तहिँ अवसरे कञ्चुइ ढुक्कु पासु गय-दन्तु अयंगमु (?) दण्ड-पाणि
किउ ण्हवणु जिणिन्दहों दसरहेण ॥1॥ देविहिँ दिव्वइँ गन्धोदयाइँ॥2॥ पहु पभणइ रहसुच्छलिय-गत्तु ।।3।। चिर-चित्तिय भित्ति व थिय विवण्ण'॥4॥ 'किर काइँ महु त्तणियएँ कहाएँ।।5। तो गन्ध-सलिलु पावइ ण केम'॥6॥ छण-ससि व णिरन्तर-धवलियासु॥7॥ अणियच्छिय-पहु पक्खलिय-वाणि॥8॥
घत्ता
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गरहिउ दसरहेंण जलु जिण-वयणु जिह
'पइँ कञ्चुइ काइँ चिराविउ। सुप्पहहें दवत्ति ण पाविउ'।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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