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8.7
इयरहँ दिव्वाहरणहँ पासिउ हरिवि णीय जा किर दहवयणें तह अणंतमइ सीलगुरुक्किय रोहिणि खरजलेण संभाविय हरि-हलि-चक्कवहि-जिणमायउ एयउ सीलकमलसरहंसिउ जणणिएँ छारपुंजु वरि जायउ सीलवंतु बुहयण सलहिज्जइ
सीलु वि जुवइहें मंडणु भासिउ।।1।। सीलें सीय दड्ढ णउ जलणे ।।2।। खगकिरायउवसग्गहँ चुक्किय ।।3॥ सीलगुणेण णइएँ ण वहाइय॥4॥ अज्ज वि तिहुयणम्मि विक्खायउ॥5॥ फणिणरखयरामरहिँ पसंसिउ॥6॥ णउ कुसीलु मयणेणुम्मायउ॥7॥ सीलविवज्जिएण किं किज्जइ
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घत्ता
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इय जाणेविणु सीलु परिपालिज्जएँ माएँ महासइ। णं तो लाहु णियंतिहें हलें मूलछेउ तुह होसड़॥9॥
8.9
ण फिट्टइ पेयवणे इह गिद्ध ण फिट्टइ तुंबरणारयगेउ ण फिट्टइ दुज्जणे दुट्ठसहाउ ण फिदृइ लोहु महाधणवंतें ण फिट्टइ जोव्वणइत्तें मरटु ण फिट्टइ विंझि महाकरिजूहु
ण फिट्टइ पंकएँ भिंगु पइट्ठ॥1॥ ण फिट्टइ पंडियलोयविवे॥2॥ ण फिदृइ णिद्धणचित्तें विसाउ॥3॥ ण फिदृइ मारणचित्तु कयंतें॥4॥ ण फिदृइ वल्लहें चित्तु चहुदृ॥5॥ ण फिदृइ सासएँ सिद्धसमूह।।6।।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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