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________________ जोह मयवाहहो पसरइ जेम कित्ति जगणाहो 5. पसरइ जेम चिन्त धण-हीणहो पसरइ जेम कित्ति सु-कुलीणही 6. पसरइ जेम सद्दु सुर-तूरहो पसरइ जेम रासि हे सूरहो 7. पसरइ जेम 1. अपभ्रंश काव्य सौरभ ( जोहा) 1/1 [ ( मय) - (वाह) 6 / 1 वि] ( पसर) व 3 / 1 अक अव्यय (fafa) 1/1 [ ( जग ) - ( णाह ) 6 / 1] Jain Education International ( पसर) व 3 / 1 अक अव्यय (चिन्ता) 1 / 1 [ ( धण) - (हीण ) 6 / 1 ] ( पसर) व 3 / 1 अक अव्यय (fanfa) 1/1 ( सु-कुलीण) 6/1 ( पसर) व 3 / 1 अक अव्यय (सद्द) 1 / 1 [(सुर ) - (तूर) 6 / 1] ( पसर) व 3 / 1 अक अव्यय (रासि) 1/2 ( णह) 7/1 (सूर) 6/1 ( पसर) व 3 / 1 अक अव्यय ज्योत्स्ना (प्रकाश) मृग को धारण करनेवाले का फैलती है जिस प्रकार महिमा जिनदेव की For Private & Personal Use Only फैलती है (उभरती है) जिस प्रकार चिन्ता धन से रहित की फैलता है जिस प्रकार यश अत्यधिक शालीन का फैलता है जिस प्रकार इट्ठ = इष्ट (तुलनात्मक विशेषण के लिए लगाया जाता है) अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 261 शब्द देवों की तुरही (वाद्य) का फैलती है ( हैं ) जिस प्रकार किरणें आकाश में सूर्य की फैलती है। जिस प्रकार 162 www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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