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________________ तहिं वसहिँ दिणयरतेयकलायर गुणगणरयणहँ सीलणिहि गहिरिमा अव्यय (वस) व 3/2 अक [(दिणयर)-(तेअ)-(कलायर) 1/1] [(गुण)-(गण)-(रयण) 6/2] [(सील)-(णिहि) 1/1] (गहिरिम) 7/1 वहाँ पर रहते हैं (रहने लगे) सूर्य, तेज में, चन्द्रमा गुणसमूहरूपी रत्नों के शील के निधान गम्भीरता में अव्यय के समान सायर (सायर) 1/1 सागर 2.17 अव्यय तब तहो णंदणु एक्कहिँ (एक्क) 7/1 वि एक दिणि (दिण) 7/1 दिन मंतिवरेण (मंतिवर) 3/1 मंत्रीवर के द्वारा (त) 6/1 सवि उस रायहो (राय) 6/1 राजा के (णंदण) 2/1 पुत्र का (को) हरिवि (हर+इवि) संक हरण करके तेण (त) 3/1 स उसके द्वारा 2. आहरण (आहरण) 2/2 आभूषणों को लेविणु (ले+एविणु) संकृ लेकर दिहिकरासु (दिहिकर) 6/1 वि गउ (गअ) भूक 1/1 अनि तुरिउ अव्यय शीघ्रता से श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146 कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) सुखकारी गया अपभ्रंश काव्य सौरभ 300 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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