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________________ तहो दिण्णा वणिणा फलइँ ताइँ (त) 4/1 स (दिण्णइँ) भूकृ 1/2 अनि (वणि) 3/1 (प्रा.) (फल) 1/2 (त) 1/2 सवि उसके लिए (उसको) दिए गए वणिक के द्वारा फल 7. संतुट्ठउ तहो। वणिवरहो। राउ धरि (संतुट्ठअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक प्रसन्न हुआ (त) 6/1 सवि उस पर (वणिवर) 6/1 श्रेष्ठ वणिक पर (राअ) 1/1 राजा (घर) 7/1 घर (जा+इवि) संकृ जाकर (त) 4/1 सवि उसके लिए (उसको) (दिण्णअ) भूकृ 1/1 अनि दिया गया (पसाअ) 1/1 पुरस्कार जाइवि तहो दिण्णउ पसाउ उवायरु उपकार महतउ जाणएण वणि (उवयार) 1/1 (महंतअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक वि महान (जाणअ) 3/1 'अ' स्वार्थिक वि समझनेवाला होने के कारण (वणि) 1/1 वणिक (णिहियअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक रखा गया [(मंति)-(पय) 7/1] मंत्री पद पर (त) 3/1 स उसके द्वारा णिहियउ मंतिपयम्मि तेण अणुराएँ विण्णिवि (अणुराअ) 3/1 क्रिविअ (वि) 1/2 वि स्नेहपूर्वक दोनों ही 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) 2. 299 अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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