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________________ वाणारसिणयरि [(वाणारसी-वाणारसि)-(णयर) 7/1] (मणोहिराम) 1/1 वि (अरविंद) 1/1 (णराहिअ) 1/1 (अस) व 3/1 अक वाराणसी नगर में मन को प्रसन्न करनेवाला अरविंद मणोहिरामु अरविंदु णराहिउ अस्थि णामु राजा है (था) अव्यय नामक A. संतोसु वहतउ णियमणम्मि पारद्धिहें। (संतोस) 2/1 प्रसन्नता को (वह वहंत-वहंतअ) वकृ 1/1 'अ' स्वा.धारण करता हुआ (णिय) वि-(मण) 7/1 अपने मन में (पारद्धि) 4/1 शिकार के लिए (गअ) भूकृ 1/1 अनि गया (एक्क) 7/1 वि एक (दिण) 7/1 गउ एक्कहिँ दिणम्मि 5. जलरहियहिँ अडविहिँ सो [(जल)-(रह-रहिय) भूक 7/1] (अडवी) 7/1 (त) 1/1 सवि (पड-पडिअ) भूकृ 1/1 पडिउ जलरहित जंगल में वह फँस गया वहाँ पर प्यास के द्वारा, से भूख के द्वारा, से व्याकुल किया गया तहिं अव्यय तण्हएं भुक्खएं विण्णडिउ (तण्हअ) 3/1 'अ' स्वार्थिक (भुक्खअ) 3/1 'अ' स्वार्थिक (विण्णड-विण्णडिअ) भूकृ 1/1 अमृत से अमिएण (अमिअ) 3/1 विणिम्मिय (वि-णिम्म-विणिम्मिय) भूकृ 1/2 बने हुए सुहयराइँ (सुहयर) 1/2 वि समास में ह्रस्व का दीर्घ, दीर्घ का हस्व हो जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4) 2. हे हैं, मात्रा के लिए अनुस्वार लगाया जाता है। सुखकारी अपभ्रंश काव्य सौरभ 298 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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