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________________ सूर्य दिवायरु मेरु-सिहरे पर्वत के शिखर पर जइ (दिवायर) 1/1 [(मेरु)-(सिहर) 7/1] अव्यय (णिवस) व 3/1 अक (सायर) 1/1 यदि णिवसइ रहता है सायरु सागर यह असेसु सब सम्भाविज्ज (एअ) 1/1 सवि (असेस) 1/1 वि अव्यय (सम्भाव-सम्भाविज्ज) प्रे. व कर्म 3/1 सक (सीया) 6/1 (सील) 1/1 सीयहे सम्भावना कराई जा सकती है सीता का शील, आचरण अव्यय नहीं अव्यय पुणु मइलिज्ज (मइल) व कर्म 3/1 सक किन्तु मलिन किया जाता (सकता) है अव्यय यदि अव्यय इस प्रकार अव्यय भी अव्यय (पत्ति+ज्ज') 2/1 सक नहीं विश्वास होता है पत्तिज्जहि तो अव्यय तो परमेसर हे परमेश्वर इसको (यह) (परमेसर) 8/1 (एअ) 2/1 स (कर) विधि 2/1 सक [(तुल)-(चाउल)-(विस)-(जल)(जलण) 6/2] कर तुल-चाउल-विस-जलजलणहँ तिल, चावल, विष, जल अग्नि में से 1. 'ज' पादपूरक है। 193 अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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