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तो दिणे छट्टि उक्किट्ठकमसेण अट्ठ दो दिवह वोलीण छुडु जाय वालु सोमालु देविंदसमदेहु तीऍ पेच्छियउ पुच्छियउ मुणिचंदु
दाविया छट्ठिया ज्झति वइसेण॥6॥ ताम जा णाम जिणयासि सणुराय॥7॥ लेवि भत्तीऍ जाएवि जिणगेहु॥8॥ मत्तमायंगु णामेण इय छंदु॥9॥
घत्ता -
मंदरु जिह थिरु तिह बुहयणहिँ कुंभरासि पभणिज्जइ। महुतणउ तणउ एरिसु मुणिवि मुणिवर णामु रइज्जइ॥10॥
3.6
तं सुणिऊण पणट्ठरईसो दिट्ठ तए सिविणंतरें सारो किज्जउ तेण सुदंसणु णामो तो जिणयासें णविवि जईसं सोहणमासें दिणे छुडु दित्तं देवमहीहरि णं सुरवच्छो वड्डइ णं वयपालणे धम्मो वड्डइ णं णवपाउसि कंदो
मेहणिघोसु भणेइ जईसो॥1॥ पुत्तिएँ तुंगु सुदंसणमेरो ॥2॥ सज्जणकामिणिसोत्तहिरामो ॥3॥ चित्ते पहिट्ठ गया सणिवासं॥4॥ बद्धउ पालणयं सुविचित्तं ॥5॥ वड्डइ तत्थ परिट्ठिउ वच्छो।6।। वड्ढइ णं पियलोयणे पेम्मो॥7॥ एसु पयासिउ दोहयछंदो॥8॥
घत्ता
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जगतमहरु ससहरु मयरहरु जिह वड्ढतउ भावइ। मणवल्लहु दुल्लहु सज्जणहँ पुरएवहाँ सुउ णावइ॥9॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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