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________________ Felmint पुच्छिज्जइ 14. करि जिय सोक्खहं ' विउलाह' अहवा दु ण को करइ रवि मेल्लिवि कमलाहं 15. मणुयत्तणु दुल्लहु लहिवि भोयहं पेरिउ जेण 1. 375 ( मोक्कल ) 1/2 वि (दे) (त) 6 / 1 स (पुच्छ पुच्छिज्ज) व कर्म 3 / 1 सक (काई) 1/1 सवि Jain Education International → अव्यय ( इच्छ) व 2 / 1 सक ( संतोस) 2/1 (कर) विधि 2 / 1 सक (FORT) 8/1 ( सोक्ख ) 6/2 (विउल) 6 / 2 वि अव्यय (via) 2/1 (त) 4 / 2 सवि ( प्राकृत) सवि (क) 1 / 1 (कर) व 3 / 1 सक (रवि) 2 / 1 (मेल्ल + इवि) संकृ ( कमल) 4/2 ( मणुयत्तण) 2 / 1 ( दुल्लह) 2 / 1 वि (लह + इवि ) संकृ (भोय) 4/2 (पेर - पेरिअ ) भूक 1/1 (ज) 3 / 1 स स्वच्छन्द उसका (उसके लिए) पूछा जाता है (पूछा जाय) क्या For Private & Personal Use Only यदि चाहता है सन्तोष कर हे मनुष्य सुखों को विपुल वाक्यालंकार हर्ष उनके लिए कौन करता है सूर्य को छोड़कर कमलों के लिए मनुष्यता को दुर्लभ कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) पाकर भोगों के लिए लगा दिया गया जिसके द्वारा अपभ्रंश काव्य सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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