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________________ अधिन्नई अन्नई मलि विणट्ठइ (अधिन्न) 1/2 वि अधीन (अन्न) 1/2 वि अन्य (मूल) 7/1 मूल के (विणट्ठअ) भूक 7/1 अनि 'अ' स्वार्थिक समाप्त हो जाने पर (तुंबिणी) 6/1 तुम्बिनी के अव्यय अवश्य ही (पण्ण) 1/2 पत्ते तुंबिणिहे अवसें पण्णई 18. जेप्पि असेसु जीतकर सम्पूर्ण कषाय की सेना को देकर कसाय-बलु देप्पिणु अभउ जयस्सु लेवि (जि+एप्पि) संकृ (असेस) 2/1 वि [(कसाय)-(बल) 2/1] (दा+एप्पिणु) संकृ (अभअ) 2/1 (जय) 4/1 (ले+एवि) संकृ (महव्वय) 2/2 (सिव) 2/1 (लह) व 3/2 सक (झा+एविणु) संकृ (तत्त) 6/1 अभय जगत के लिए (को) ग्रहण करके महाव्रतों को महव्वय सिवु मोक्ष लहर्हि झाएविणु तत्तस्सु प्राप्त करते हैं ध्यान करके तत्त्व (का) को 19. देवं दुक्कर (दा+एवं) हेकृ (दुक्कर) 1/1 वि [(निअय) वि-(धण) 2/1] (कर+अण) हेक देने के लिए दुष्कर निजधन को करने के लिए निअय धणु करण अव्यय नहीं (तअ) 2/1 तप को कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) 341 अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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