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पाठ - 13
धण्णकुमारचरिउ
सन्धि
- 3
3.16
(1) सभी के द्वारा लकड़ियाँ और तलवारें हाथ में रखी गईं। भोगवती (साथ में जाने से) रोकी गई (फिर भी) (वह) (उनके साथ) (जंगल में) चल दी। (2) उसके (अकृतपुण्य के) द्वारा दूर से (ही) (सब) देख लिए गए (कि) (वे) हैं। हाँक देते हुए (और) आते हुए भी (वे) देख लिए गए। (3) (उसने सोचा कि) (जब) बछड़ों के समूहों को (उन्होंने) कहीं भी नहीं पाया होगा (तो) इन (हथियारों) से (मुझे) मारने के इच्छुक यहाँ (जंगल में) आये हैं। (4) मन में यह विचारकर (वह) भय से काँपा। फिर पीछे की ओर मुड़कर, देखकर (वह) जंगल में छिप गया। (5) वे बुलाते (थे) (कि) हे (बालक)! (तुम) घर में आओ। आओ, आओ। भय के अधीन (होकर) मत भागो। (6) (तुम सुनो कि) बछड़ों) के समूह निज घर में पहुँच गए (हैं)। तू (जंगल) (में) ही ठहरा है, (हमारे द्वारा) बुद्धि से (यह) नहीं समझा गया (था)। (7) तुम्हारी माता तुम्हारे दुःख द्वारा दुःखी की गई (है), (उसको) यहाँ अकेली छोड़कर वन में मत जा। (8) तो भी वह भयभीत (अकृतपुण्य) (वापिस) नहीं लौटा। (वह) इस सबको (उनके द्वारा) किया हुआ छल समझता है। (9) रात्रि हई! फिर सिंह के भय से पीड़ित वे पलटकर अपने घर को गए। (10) उसकी माता महादुःख के कारण दुःखी (और) निराश हुई। (वह) (एक) क्षण में बहते हुए नेत्रवाली (हुई)। (11) हाय-हाय! (अब) सुत का दर्शन (मिलन) कैसे होगा? वह (अपनी) दुष्ट किस्मत को बार-बार कोसने लगी। (12) हे भाई! हे भाई! हाय! (मैं) (अब) कैसे जीतूंगी? सुन्दर भुजावाले (और) सुन्दर मुखवाले (पुत्र) को कैसे देखूगी? (13) हाय-हाय! हे भाई! (तुम) निश्चिन्त क्यों हो? मेरा पुत्र कठिन (विषम) अवस्था में पड़ा हुआ (है)। (14) मैं विदेश में तुम्हारी शरण में पड़ी हुई (हूँ)। (कहीं) जाकर मेरे लिए (तुम) (कुछ) करो, (जिससे) (मुझको)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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