________________
पाठ - 13
धण्णकुमारचरिउ
सन्धि
- 3
3.16
लउडि-खग्ग सव्वहिं करि धारिय दूरहु हुँति तेण णियच्छिय एयहु मारणत्थि इह आवहिँ इय मणि मंतिवि पुणु भयतट्ठउ ते बोल्लावहिँ भो गिहि आवहि वच्छउलइँ णियगेहि पराणिय तुज्झु जणणि तुअ दुक्खें सल्लिय तह वि ण सो णियत्तु भयभीयउ जाय रयणि ते सीह-भयाउर तासु जणणि महदुक्खें तत्ती हा-हा किह सुव-दसणु होसइ भाय-भाय हा किम जीवेसमि हा-हा किं बंधव णिचिंतउ हउँ तुव सरणि विएसें पत्ती
भोगवइ चल्लिय विणिवारिय॥1॥ हक्क दिंत आवंत वि पेच्छिय ॥2॥ वच्छउलइँ णउ कत्थ वि पावहिं॥3॥ पच्छउ वलिवि णिएवि वणि णट्ठउ॥4॥ एहि-एहि मा भयवसु धावहि॥5॥ तुहु इ थक्कु ण मइए जाणिय॥6॥ मा वणि जाहि मुइवि एकल्लिय।।7॥ मुणइ पवंचु सयलु इणु कीयउ॥8॥ पल्लट्टिवि गय ते पुणु णियघर॥9॥ हुय णिरास खणि पगलियणेत्ती॥10॥ दुट्ठ विहिहिँ पुणु-पुणु सा कोसइ॥11॥ सुबाहु सुवत्तु किम पेच्छेसमि॥12॥ महु सुउ विसमावत्थहिँ पत्तउ॥13॥ करहि गंपि महु पुत्तहु तत्ती॥14॥
88
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org