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महु मणु अच्छइ बहुदुक्खायरु इय कंदंति णिवारइ भायरु ।।15।। अच्छहि कलुणु म कंदहि बहिणीपुर-सयासि सो णिवसइ रयणी॥16॥
घत्ता
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जिं णियउरि धरियउ खीरें भरियउ परपेसणेण जि पोसियउ। मह-दुक्खें पालिउ देहँ लालिउ तं वीसरइ केम हियउ॥17॥
3.19
हउँ होतउ दुख-दालिद्द-जडिउ णिद्धंधउ छुह-तिस-संभरिउ थक्कइ असोय-माम जि घरि मइ दाणु पदिण्णउँ मुणिवरहु हउँ वच्छउलहँ रक्खणहँ गउ पवणाहय ते णिय आय घरि थक्कउ तहिं आयमु बहु सुणिउ जा णिवसमि ता सिंघेण हउ मुणिवयणपसाएँ दुक्खभरु । एत्तहिं तह मायरि दुहभरिया हुय सुप्पहाए सयल जि मिलिया सव्वत्थ वणम्मि गवेसियउ
पुवक्किय दुक्कम्मेण णडिउ॥1॥ जणणिए सहु देसंतर फिरिउ॥2॥ हउँ अत्थि पवहिउ तहिं पवरि ।।3।। सहुँ जणणिए णिहणिय भवसरहु॥4॥ तहिं सुत्तउ जावहिं विगय-भउ॥5॥ हउँ भयभीयउ कंदरि-विवरि॥6॥ संसार-सरूवउ वि चित्ति मुणिउ॥7॥ हउँ सुरवर जायउ चिय विवउ॥8॥ छिंदिवि खणि जायउ सुक्खघरु॥9॥ महदुक्खें खविय विहावरिया।।10॥ सहुँ जणणिए तं जोयहुं चलिया॥11॥ मह सोएँ पुरजणु सोसियउ॥12॥
घत्ता
तहुँ खोज्जु णियंतइँ जंत. संतइँ पत्तइँ गिरि-गुह-वारि पुणु। . तहितहुकर-चलणबहु-दहु-जणणइँदिइँदहदिसि पडिय तणु॥13॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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