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पंडियलोयविवेउ
3.
ण
फिट्टइ
दुज्ज
दुःसहाउ
ण
फिट्टइ
द्धिचित्ते
विसाउ
4.
ण
फिट्टइ
लोहु महाधणवते
15
ण
फिट्टइ
मारणचितु
कयंते
5.
ण
फिट्टइ
जोव्वणइत्ते
मरट्टु
ण
फिट्टइ
वल्लहे
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
[(पंडिय) - (लोय) - (विवेअ) 1 / 1 ]
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अव्यय
(फिट्ट) व 3/1 अक
(दुज्जण) 17/1
[ ( दुट्ठ) भूकृ अनि - (सहाअ ) 1 / 1 ]
अव्यय
(फिट्ट) व 3/1 अक
[ ( णिद्धण) - (चित्त) 7 / 1]
(fa37) 1/1
अव्यय
(फिट्ट) व 3 / 1 अक
(लोह) 1 / 1
( महाधणवंत ) 17 / 1 वि
अव्यय
(फिट्ट) व 3 / 1 अक
[ ( मारण) - (चित्त) 1 / 1]
( कयंत ) ' 7/1
अव्यय
(फिट्ट) व 3/1 अक
( जोव्वण - इत्त) 1 7 / 1 वि
( मरट्ट) 1/1
अव्यय
(फिट्ट) व 3 / 1 अक (वल्लह) 7/1
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नहीं
ओझल होता है।
दुर्जन से
दुष्ट स्वभाव
नहीं
समाप्त होती है
निर्धन के चित्त से
चिन्ता
कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136)
नहीं
जाता है
लोभ
महाधनवान से
नहीं
दूर होता है
मारने का भाव
यमराज से
नहीं
हटता है
यौवनवान से
अहंकार
नहीं
विचलित होता है
प्रेमी में
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