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सगव्व
गय
जायव
मज्जै मज्जें
खयहो'
सव्व
15.
साइि
to
व
वेस
रत्ताघरसण
दरिसइ
सुवेस
16.
तो
जो
वसेइ
सो
कायरु
उच्छिट्ठउ
असेइ
--
17.
वेसापम
णिद्धणु
हुउ
इह
1.
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(सगव्व) 1 / 2 वि
( गय) भूक 1/2 अनि
( जायव) 1/2
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(मज्ज) 3 / 1
( खय) 6 / 1
( सव्व) 1 / 2
(साइणी) 1 / 1
अव्यय
(वेसा) 1 / 1
[ ( रत-र
- रक्त- रक्तार) - (घरिसण) 2/1]
(दरिस) व 3/1 सक
( सुवेस) 2 / 1
(त) 6/1 स
(ज) 1 / 1 सवि
(वस ) व 3 / 1 अक
(त) 1 / 1 सवि
(कायर) 1 / 1 वि
(उच्छिट्ठअ ) 2 / 1 'अ' स्वार्थिक
(अस) व 3 / 1 सक
[ ( वेसा) - ( पमत्त) भूकृ 1 / 1 अनि ]
(णिद्धण) 1 / 1 वि
( हु - हुअ ) भूकृ 1 / 1
अव्यय
घमण्डी
प्राप्त हुए
यादव
मदिरा के कारण
विनाश को
सभी
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पिशाचिनी
की तरह
वेश्या
खून का घर्षण
दिखाती है
सुन्दर वेश
उसके
जो
रहता है
वह
अस्त-व्यस्त
जूठन खाता है
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ हो जाते हैं। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4)
वेश्या में मस्त हुआ
धनरहित
हुआ
यहाँ
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