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________________ 3. विसय वि ण भंति जम्मंतरकोडिहिँ दुहु जणंति 4. चिरु रुद्ददत्तु णिवडिउ यावे विसयजुत्तु 5. वदु आयरेण जो ླ 4, रमइ जूउ बहुफ्फ 6. सो च्छोहतु आहण जणणि सस धरिणि 263 Jain Education International (farer) 1/2 अव्यय अव्यय (sifa) 1/1 [ ( जम्म) + (अन्तर) + (कोडिहिँ) ] [ ( जम्म) - ( अन्तर) - (कोडि) 7 / 2 वि] (दुह) 2/1 (जण) व / 32 सक अव्यय (रुदत्त) 1 / 1 (णिवड- णिवडिअ ) भूकृ 1 / 1 [(णरय) + (अण्णवे)] [ ( णरय) - ( अण्णव) 7 / 1] ( विसय) - ( जुत्त) भूकृ 1 / 1 अनि (वढ) 1 / 1 वि क्रिविअ (ज) 1 / 1 सवि (रम) व 3 / 1 सक (जूअ ) 2/1 [ ( बहु) वि - ( डफ्फर) 3 / 1 ] (त) 1 / 1 सवि [ ( च्छोह) - ( जुत्त) भूक 1 / 1 अनि ] ( आहण ) व 3 / 1 सक ( जणणी) 2/1 ( ससा ) 2/1 (front) 2/1 For Private & Personal Use Only विषय किन्तु नहीं सन्देह करोड़ों जन्मों के अवसर पर दुःख उत्पन्न करते ( रहते हैं दीर्घकाल के लिए रुद्रदत्त पड़ा नरकरूपी समुद्र में विषयों में लीन मूर्ख उत्साहपूर्वक जो खेलता है जुआ ? वह रोष से युक्त हुआ कष्ट देता है माता बहन पत्नी अपभ्रंश काव्य सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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