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________________ संसारहु तारइ 1. पुरवि हिं गहिरयं सवणमहुरयं एरिसं पउत्तं आणापसरधारणे धरणिकारणे पणविउं ण जुतं 2. पिंडिखंडु महिखंडु महेप्पि किह पणविज्जइ माणु मुएप्पिणु 1. अपभ्रंश काव्य सौरभ (संसार) 5/1 (तार) व 3 / 1 अक Jain Education International 16.8 अव्यय (त) 3 / 2 स ( गहिर - य) 1 / 1 वि 'य' स्वार्थिक (सवण) - (महुर-य) 1 / 1 वि (एरिस) 1/1 वि (पउत्त) भूकृ 1 / 1 अनि [ ( आणा) - (पसर) - (धारण' ) 7 / 1 ] [ ( धरणि) - ( कारण ' ) 7 / 1] ( पणव) हेकृ अव्यय ( जुत्त) भूकृ 1 / 1 अनि [(पिंडि)-(खंड) 2/1] [ ( महि) - (खंड) 2 / 1] (मह + एप्पिणु) संकृ अव्यय ( पणव + इज्ज) व कर्म 3/1 सक ( माण ) 2 / 1 (मुअ + एप्पिणु) संकृ संसार से पार लगाता है For Private & Personal Use Only फिर उनके द्वारा महत्त्वपूर्ण सुनने में मधुर इस प्रकार कहा गया (कहे गये) आज्ञा - प्रसार के पालन करने के प्रयोजन से पृथ्वी के निमित्त से प्रणाम करना (करने के लिए) नहीं उपयुक्त शरीर खण्ड को भू-खण्ड को, पृथ्वी को महत्त्व देकर क्यों कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135 ) प्रणाम किया जाता है ( जाए) आत्मसम्मान को छोड़कर 210 www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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