________________
मुच्छाविय जणणि गिएवि उम्मुच्छिवि मायरि मुवि धाह हा - हा महु णंदणु हउँ सदुक्खि वारंतहँ सव्वहँ गयउ काइ किं कुमड़ जाय तुव एह पुत्त महु छंडि गयउ तुहु किं विएसि इय भणिवि चलण-कर मेलवेवि ता सुरवरु चिंतइ सग्गवासि जाइवि संबोहमि ताहि अज्जु अणु विणियगुरु चरणारविंद इय चिंतिवि आयउ तहिँ सुरेसु डिउ आविवि जंपिवि सुवाय हउँ जीवमाणु महु णियहि वत्तु मोहाउर णिसुणिवि वयण सिग्घु
घत्ता
92
-
Jain Education International
3.20
वि दक्खाविय तेत्थु ठाइ ॥ 1 ॥ रोवणह लग्ग हा हुये अणाह ॥ 2 ॥ किं मुक्की णिक्कारणि उवेक्खि ॥3॥ हा हा किं णायउ गेह - ठाइ || 4 || जं वणि आवासिउ कमलवत्त् ॥ 15 ॥ हउँ पाण चयमि पुणु इह पएसि ॥ 6 ॥ आलिंगइ जा णेहेण लेवि ॥7॥ किम जणणि मज्झ हुव सोक्खरासि ॥8॥ जिम सिज्झइ तहि परलोइ कज्जु ॥9॥ पणमवि जाइवि गइमल अणिंद ॥10 ॥ मायइँ करेवि चिर-देह - वेसु ॥11॥ किं कंदहि रोवहि मज्झ माय ॥12 ॥ हउँ अकयपुण्णु णामेण पुत्तु ॥13॥ णिच्छड़ जाणिउ महु सुउ अणग्घु ॥4॥
मेल्लिवि कर-चरणइँ बहुदुहकरणइँ धाइवि आलिंगेहि तहु । ता सुरवरु सारउ वसु-गुण-धारउ पर सरेवि थिउ सो वि लहु ॥15॥
For Private & Personal Use Only
अपभ्रंश काव्य सौरभ
www.jainelibrary.org