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11.
इय
चितिवि
आयउ
हिँ
सुरे
मायइँ
करेवि
चिर-देह-सु
12.
णियडउ
आविवि
जंपिवि
सुवाय
किं
कंदहि
रोवहि
मज्झ
माय
13.
हउँ
जीवाणु
महु
णियहि
वतु
हउँ
अकयपुण्णु
णामेण
पुत्तु
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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(इया) 2 / 2 सवि
इनको
( चिंत + इवि) संकृ
सोचकर
(आयअ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक आया
वहाँ
उत्तम देव
माया से
अव्यय
(सुरेस ) 1/1
(माया मायाए- मायाइ - मायाइँ) 3 / 1
(कर + एवि ) संकृ
[(चिर) वि - (देह) - (वेस) 2 / 1]
(णियडअ ) 2 / 1 'अ' स्वार्थिक
( आव + इवि ) संकृ
( जंप + इवि) संकृ
(सुवाया) 2 / 1
अव्यय
(कंद) व 2/1 अक
(रोव) व 2 / 1 अक
( अम्ह) 6 / 1 स
(माया) 8 / 1
( अम्ह) 1 / 1 स
(जीव) वकृ 1 / 1
( अम्ह ) 6 / 1 स
(णिय) विधि 2 / 1 सक
( वत्त) 2 / 1
( अम्ह) 1 / 1 स
( अकयपुण्ण) 1/1
( णाम) 3 / 1
(पुत्त) 1 / 1
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बनाकर
पुरानी देह के वेश को
निकट
आकर
कहकर
मधुर वचन
क्यों
क्रन्दन करती हो
रोती हो
मेरी
हे माता
मैं
ता हुआ (जीवित)
मेरे
देखो
मुख को
मैं
अकृतपुण्य
नाम से
पुत्र
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