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22.2
(1) (राजा को) प्रणाम करके, उसके द्वारा भी इस प्रकार कहा गया - हे देव! (मेरे) दिन चले गये, यौवन खिसक गया, (2) बुढ़ापा प्रारम्भिक आयु (युवावस्था) को सफेद करता हुआ आ गया, और कुलटा (स्त्री) की तरह सिर पर चढ़ा हुआ विद्यमान है। (3) गति टूट गई (है), हड्डियों के जोड़ों के बन्धन खुल गये (हैं), कान सुनते नहीं (हैं), आँखें बिल्कुल अन्धी (हैं)। (4) सिर हिलता है, मुख में वाणी लड़खड़ाती है। दाँत टूट गये (हैं), शरीर की कान्ति नष्ट हो चुकी (है)। (5) खून क्षीण हो चुका (है), केवल चमड़ी रह गई (है), मानो मेरा यहाँ दूसरा ही जन्म हुआ (है)। (6) (इसलिए) पैर पर्वतीय नदी के (समान) प्रवाह को धारण नहीं करते हैं, (तो) हे राजा (वह रानी) (उस) गन्धोदक को किस प्रकार पावे। (7) (कञ्चुकी के) उस कथन से राजा (दशरथ) के द्वारा (मन में) विचार किया गया (और वे) राम के पिता (दशरथ) अत्यन्त दुःख को प्राप्त हुए। (8) (उन्होंने सोचा) (यह) सत्य (है) (कि) जीवन चंचल (है), (तो फिर) वह कौनसा सुख (है), (जो) अनुभव किया जाता है, जिससे मोक्ष (शाश्वत पद) सिद्ध होता है।
घत्ता - (इन्द्रिय-) सुख मधु की बिन्दु के समान (होता है), दुःख मेरु-पर्वत के समान लगता (दिखता) है। किया हुआ वह (ही) कर्म अच्छा (होता है), जिससे अजर-अमर पद प्राप्त किया जाता है।
22.3
(1) किसी दिन हम जैसों की (अवस्था) ऐसे (लोगों) के (समान) ही होगी, . (जैसी) कञ्चुकी की अवस्था (है)। (2) (इस पर राजा के द्वारा विचार किया गया कि) मैं कौन (हूँ)? किसकी पृथ्वी (है)? किसका धन (है)? सिंहासन (और) छत्र सभी अस्थिर (हैं)। (3) यौवन, शरीर, धन (और) (चल रहे) जीवन को धिक्कार (है)। संसार असार (है), धन हानिकारक (होता है)। (4) (इन्द्रिय-) विषय विष (हैं), बन्धु कठोर बन्धन (हैं), घर और पत्नी दुःख देने के कारण (बन जाते हैं)। (5) सुत (पुत्र) शत्रु (हो जाते हैं), (वे) उपार्जित (धन) को छीन लेते हैं। बुढ़ापे और मरण के अवसर पर नौकर-चाकर क्या करते हैं? (6) जीव की आयु हवा
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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