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आणि पुत्त सप्पाइ दुक्खु विसय वि ण भंति
चिरु रुद्ददत्तु वढु आयरेण
सो च्छोहजुत्तु
जूयं रमंतु
मंसासणेण
अहिलसइ मज्जु पसरइ अकित्ति
जंगल असंतु
मइरापमत्तु
रच्छ पडे
होता सगव्व साइण व वेस
तहाँ जो वसेइ वेसापमत्तु
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पाठ
-
10
सुदंसणचरिउ
सन्धि - 2
2.10
जह आगमें सत्त वि वसण वुत्त ॥1॥ इह दिंति एक्क भवें दुण्णिरिक्खु ॥ 2 ॥ जम्मंतरकोडिहिँ दुहु जणंति ॥3॥ विडिउ णरयण्णवें विसयजुत्तु ॥4॥ जो रमाइ जूउ वहुडफ्फरेण ॥5॥ आहणइ जणणि सस घरिणि पुत्तु ॥6॥ लु तह य जुहिट्ठिल्लु विहरु पत्तु ॥ 7 ॥ वड्ढेइ दप्पु दप्पेण तेण ॥8 ॥ जूउ वि रमेइ बहुदोससज्जु ॥ 9 ॥ तें कज्जें कीरइ तहाॅ णिवित्ति ॥10॥ aणु रक्खसु मारिउ णरए पत्तु ||11|| कलहेप्पिणु हिंसइ इट्ठमित्तु ॥12॥ उब्भियकरु विहलंघलु णडेइ ||13|| गय जायव मज्जें खयहो सव्व ॥14॥ रत्ताघरसण दरिसइ सुवेस ॥15॥ सो कायरु उच्छिउ असेइ ||16|| द्विणु उ इह वणि चारुदत्तु ॥17॥
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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