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________________ 5. हरि-करि घोड़े व हाथी किणवि खरीदकर बर्तन (भांडा) नाना प्रकार के [(हरि)-(करि) 2/1] (किण+अवि) संकृ (भंड) 2/1 (नाणविह) 2/1 वि (घर) 2/1 (जाअ) भवि 1/1 सक [(निव)-(संपया-संपय')-(निह') 2/1 वि] नाणाविहु घरु जाएसमि निवसंपयनिहु घर जाऊँगा राजा की सम्पदा के समान अह अव्यय तब हत्थाउ गलिउ हाथ से निकल गया दरनिद्दहो अल्प निद्रा में पडिउ (हत्थ) 5/1 (प्रा.) (गलगलिअ) भूकृ 1/1 (दर)+ (निद्दहो) दरअव्यय (निद्दा) 6/1 (पड-पडिअ) भूकृ 1/1 (रयण) 1/1 (त) 1/1 सवि (मज्झ) 7/1 (समुद्द) 6/1 पड़ा रयणु रत्न वह मज्झे भीतर (अन्दर) समुद्र के समुद्दहो तरियहु अरे, अरे धाहावइ (धाहाव) व 3/1 अक हाहाकार मचाता है (मचाया) (तर-तरिय) भूकृ 4/1 तैरे हुए (लोगों) के लिए दीहरगिरु [(दीहर) वि-(गिर) 2/1] | ऊँची आवाज हा-हा अव्यय जाणवत्तु (जाणवत्त) 1/1 जहाज 1. समास में दीर्घ का ह्रस्व हो जाया करता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4) 2. . निह-समान। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) 259 अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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