SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तित्थे' चयवि नियथा इँ 7. पूरि हिँ मणिरयणसुव अवलोइउ संखिणिनिहि अण्णाहिँ 8. मंतिज्जए आएण असारें खडहडतरुवयसंचारें 9. जाणाविउ लोयाण समग्गा अम्हइँ गिहाविज्ज लग्गा 10. चितेवि तम्मि छुद्ध निउ 1. 2. 247 (farer) 7/1 (चय + अवि) संकृ [ ( निय) वि - ( थाण) 2 / 2] Jain Education International (पूर - पूरिअ) भूकृ 3/2 [(मणि) - ( रयण) - (सुवण्ण) 3 / 2 ] (अवलोअ - अवलोइअ ) भूकृ 1 / 1 [ ( संखिणी) - (निहि) 1 / 1] ( अण्ण) 3 / 2 स ( मंत+इज्ज) व कर्म 3 / 1 सक (आअ ) भूक 3 / 1 अनि (असार) 3/1 [(खडहडंत) वकृ- (रूवय) - (संचार) 3 / 1 ] ( जाण + आवि + अ ) प्रे. भूक 1/1 (लोय) 4 / 2 (प्रा) (स) वि - ( मग्ग ) 27 / 1 (चित+एवि ) संकृ (त) 7 / 1 स (छुद्ध) 1/1 वि (दे) (निअ ) 2 / 1 वि तीर्थ स्थान को छोड़कर निज निवासों को सम्पन्न (के द्वारा) मणि, रत्न और सोने से देख ली गयी संखिणी की निधि अन्य (व्यक्तियों) के द्वारा For Private & Personal Use Only सोचा जाता है (गया) आये हुये द्वारा असार खड़खड़ करते हुए रुपये की गति के कारण ( अम्ह ) 1 / 2 स हम (गिण्ह + आवि + इज्ज) प्रे. व कर्म 1 / 2 सकग्रहण कराये जाते हैं लगे हुए (लग्ग) भूकृ 4 / 2 अनि बतलाया गया लोगों के लिए स्वमार्ग में कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 147 सोचकर उस (विषय) में डाल दिया गया निज अपभ्रंश काव्य सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy