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________________ भल्लउ एक्क्कर मणिरयणु गरिल्लउ 11. सो सं करेवि पवत्तइँ हावि तित्थे निययघरु पत्तइँ 12. अह छणदिणि महिलाए कहिज्ज रूवउ अज्जु नाह विलसिज्जइ 13. संखिणि खणइ कलसु जहिँ धरियउ अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International (भल्लअ ) 2 / 1 'अ' स्वार्थिक [(एक्क) + (एक्कउ)] [ ( एक्क) - (एक्कअ) 1 / 1 वि 'अ' स्वा. ] [(मणि) - ( रयण) 1 / 1 ] ( गरिल्लअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक (त) 1 / 1 सवि ( संपुण्ण) भूकृ 1 / 1 अनि (कर + एवि ) संकृ (पवत्त) भूक 1 / 2 अनि (हा + एवि ) संकृ (facer) 7/1 ( नियय) - (घर) 2/1 ( पत्त ) भूकृ 1 / 2 अनि अव्यय (छण) - (दिण) 7/1 (महिला) 3 / 1 ( कह) व कर्म 3 / 1 सक (रूवअ) 1/1 अव्यय ( नाह) 8 / 1 ( विलस) व कर्म 3 / 1 सक ( संखिणि) 1/1 (खण) व 3 / 1 सक (कलस) 1/1 अव्यय - ( धर~ धरिय + धरियअ) भूकृ 1 / 1 'अ' स्वार्थिक For Private & Personal Use Only भले को एक-एक मणिरत्न श्रेष्ठ वह पूर्ण कर दिया गया करके प्रवृत्त हुए स्नान करके तीर्थ में अपने घर को पहुँचे तब उत्सव के दिन पर पत्नी के द्वारा कहा जाता है (गया) रुपया आज हे नाथ भोग किया जाता है ( जाए) संखिणी खोदता है कलश जहाँ पर रखा गया 248 www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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