SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिहरी पर्वत पवरो श्रेष्ठ (सिहरि) 1/1 (पवर) 1/1 वि [(णव)-(कप्पयरु) 1/1] [(अमरिंद)-(घर) 1/1] णवकप्पयरू नया कल्पवृक्ष इन्द्र का घर (स्वर्ग) अमरिंदघरू 12. पवरंबुणिही पजलंतु सिही सुविराइयओ [(पवर)+(अंबुणिहि)] [(पवर) वि-(अंबुणिहि) 1/1] उत्तम-समुद्र (पजल-पजलन्त) वकृ 1/1 चमकती हुई (सिहि) 1/1 अग्नि (सु-विराअ-सुविराइय-सुविराइयअ) भूक अत्यन्त सुशोभित 1/1 'अ' स्वार्थिक (अवलोअ--अवलोइय-अवलोइयअ) देखा गया भूकृ 'अ' स्वार्थिक अवलोइयओ 13. पसरम्मि प्रभात में सई सती उत्तम शुद्धमति वरसुद्धमई गय गई सिग्घु (पसर) 7/1 (सइ) 1/1 वि [(वर) वि-(सुद्धमइ) 1/1 वि] (गय-गया) भूकृ 1/1 अनि अव्यय अव्यय (थिअ) भूकृ 1/1 अनि (कंत) 1/1 अव्यय शीघ्र वहाँ पति जहाँ 14. णिसि रात में देखे गये लक्खियउ (णिस) 7/1 (लक्ख-लक्खिय-लक्खियअ) भूक 1/1 'अ' स्वार्थिक (त) 6/1 स तसु उसके द्वारा 1. कभी कभी नतीया तिनिके TOP - विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है व्याकरण 3-134) अपभ्रंश काव्य सौरभ 284 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy