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पाठ - 17 सावयधम्मदोहा
दुर्जन
दुज्जणु सुहियउ
सुखी
होवे
होउ जगि
जग में
सज्जन
सुयणु पयासिउ
(दुज्जण) 1/1 वि (सुह-सुहिय-सुहियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक (हो-होअ) विधि 3/1 अक (जग) 7/1 (सुयण) 1/1 (पयास-पयासिअ) भूकृ 1/1 (ज) 3/1 स (अमिअ) 1/1 (विस) 3/1 (वासर) 1/1 (तम-तमेण-तमिण) 3/1
विख्यात किया गया
जेण
जिसके द्वारा
अमिउ
अमृत विष के द्वारा
विसें
वासरु
दिन
तमिण
अन्धकार के द्वारा
जिम
मरगउ
अव्यय (मरगअ) 1/1 (कच्च) 3/1
जिस प्रकार मरकत मणि (पन्ना) काँच से
कच्चेण
2.
जिह
अव्यय (समिला) 4/1
समिलहिं
जिस प्रकार समिला (लकड़ी की खोल) के लिए सागर में लुप्त दुर्लभ जॅवे का
सायरगयहिं।
[(सायर)-(गय) भूक 4/1 अनि] (दुल्लह) 1/1 वि (जूय) 6/1
दुल्लहु जूयहु
1. 2.
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151 श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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