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रंधु
तिह
जीवहं
भवजलगयहं
मयत्तणि'
सम्बन्धु
Jhark
3.
मणवयकाय हिं
दया
करहि
जेम
दुक्कइ
पाउ
उरि
सणा
बद्धरण 2
अवसि
ण
लग्गइ
धाउ
4.
सुधणधण
खेत्तियई
करि
1.
2.
3.
369
( रंध) 1/1
छिद्र
अव्यय
उसी प्रकार
(जीव) 4/2
जीवों के लिए
[(भव) - (जल) - (गय) भूकृ 4 / 2 अनि ] संसाररूपी पानी (सागर) पड़े हुए
मनुष्यत्व से
सम्बन्ध
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( मणुयत्तण) 3 / 1
( सम्बन्ध) 1 / 1
[ (मण) - (वय) - (काय) 3 / 2 ]
(दया) 2 / 1
(कर) विधि 2 / 1 सक
अव्यय
अव्यय
(ढुक्क ) व 3 / 1 सक
(137) 1/1
(उर) 7/1
( सण्णाह) 3 / 1
(बद्धअ - बद्धएण - बद्धइण) भूकृ
3 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
अव्यय
अव्यय
(लग्ग) व 3 / 1 अक
(धाअ) 1/1
[(पसु) - (धण) - (धण्ण ) 3 7 / 1 ]
( खेत्त + इ + खेत्तिय ) 7/1 'इय' स्वार्थिक (कर) विधि 2 / 1 सक
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 144
एण - इण ( श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 143) श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146
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मन-वचन-काय से
दया
करो
जिससे
न
प्रवेश करता है ( प्रवेश करे)
पाप
छाती में
कवच के कारण बन्धे हुए
अवश्य ( निश्चय ही )
नहीं
लगता है
घाव
पशु, धन, धान्य
खेत में
कर
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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