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________________ 4. भुयजुयबलपडिबलविद्दवणहं पयभरथिरमहियल कंपवणहं 5. ते ओहामियचंददिणेसहं जणणदिण्णमहिलच्छि विलासहं 6. कित्तिसत्तिजणमेत्तिसहायहं को पडिल्लु एत्थु तुह भायहं 7. सेव करंति ण भाईव णउ णवंति तुह पराईव अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International [[ (भुय) - (जुय) वि- (बल) - (पडिबल) - भुजाओं के, जोड़ा (दोनों), (वि- दवण) 6 / 2 ] वि] बल से, शत्रु की सेना का दमन करनेवाले [ ( पय) - (भर) - (थिर) - (महियल) - ( कंपवण ) 6 / 2 वि] ] [(तेअ) + (ओहामिय) + (चंद) + (दिणेसह ) [ ( तेअ) - (ओहामिय) (दे) वि- (चंद) - (दिणेस) 6/2] [ ( जणण) - (दिण्ण) भूक अनि - (महि) - (लच्छि ) - (विलास) 4/2] [ ( कित्ति) - (सत्ति) - ( जण) - (मेत्ति) - (सहाय) 4 / 2 ] (क) 1 / 1 सवि (पडिमल्ल) 1 / 1 वि अव्यय (तुम्ह) 6 / 1 स (भाय) 4 / 2 (सेवा) 2 / 1 (कर) व 3/2 सक अव्यय [(ह) + (भा) + (अईवइं ) ] [ ( णह) - (भा) - (अईव) 2 / 2 ] अव्यय (णव) व 3 / 2 सक (तुम्ह) 6 / 1 स [ ( पय) - (राईव ) 2 / 2 ] For Private & Personal Use Only पैरों के, भार से, स्थिर, पृथ्वीतल को, कँपानेवाले तेज, तिरस्कृत, चाँद, सूर्या पिता के द्वारा, दी गई, पृथ्वी (रूपी) लक्ष्मी, मनोविनोद के लिए कीर्ति, शक्ति, जनता मित्रता, सहायता के लिए कौन जोड़वाला ( प्रतिद्वन्द्वी) यहाँ तुम्हारे भाइयों का सेवा करते हैं नहीं नखवाले, कान्ति से, अत्यधिक नहीं प्रणाम करते हैं तुम्हारे चरण (रूपी) कमलों को 204 www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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