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(की तरह) (चंचल) (होती है), (देखो) बेचारे घोड़े (युद्ध में) मारे गये (हैं)। रथ टूटनेवाले (होते हैं), मरे हुए (व्यक्ति) (सदा के लिये) ही गये, (वे) (कभी) नहीं लौटे। (7) शरीर तृण (के समान) ही (होता है), (वह) आधे क्षण में क्षय को प्राप्त होता है। धन धनुष (के समान) (होता है), (जो) प्रत्यञ्चा (रूपी दुर्गुण) से बाँका रहता है। (8) पुत्री दुःखी करनेवाली (होती) है, माता मोह-जाल (होती है), चूँकि (भाई) (सम्पत्ति में) समान हिस्सा लेते हैं, इसलिये (ही) (वे) भाई (हैं)।
घत्ता - इनको (और) दूसरे सबको भी राम को देकर (मैं) स्वयं तप करूँगा। इस प्रकार विचार करके दशरथ स्थिर हुए।
22.7
___ घत्ता - दशरथ दूसरे दिन (जब) राम को राज्य दे देते हैं, तक केकय देश के राजा की कन्या (कैकयी) मन में, (तपती है, दुःखी होती है), जैसे ग्रीष्मकाल में धरती तपती है।
22.8
(1) राजा दशरथ के संन्यास-विधान को और पत्नीसहित आकर्षक (लगनेवाले) राम के लिए राज्य (देने) को सुनकर, (2) द्रोण राजा की बहिन (कैकयी), (जिसका) (राम के प्रति) स्नेह टूट गया (था), (जिसके) पैर लता-रूपी नूपुरों से लिपटे हुए और कान्तिसहित (थे), (6) कैकेयी (उस ओर) गई, जहाँ (राज) सभास्थान का पथ (था) (और) (सभास्थान में) इन्द्र की तरह राजा (दशरथ) आसन पर स्थित (थे)। (7) वहाँ पहुँचने पर उसने कहा -) हे नाथ! यह वह समय (है) (जब) माँगा हुआ वर (पूरा किया जाना चाहिये) (उसने कहा) मेरा पुत्र (भरत) राज्य का पालनकर्ता रहे। (8) हे प्रिये! इसी प्रकार होवे। तब गुणवान श्रीराम गर्व से बुलाए गए।
घत्ता - यदि तुम मेरे पुत्र (हो), तो इतनी आज्ञा पालन की जाए (कि) छत्र, आसन (सिंहासन) और पृथ्वी भरत के लिए दे दी जाए।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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