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चिन्तावण्णु णराहिउ जाहिँ दुम्मणु एन्तु णिहालिउ मायएँ 'दिवें दिवें चडहि तुरङ्गम-णाऍहिँ दिवें दिवें वन्दिण-विन्देहिँ थुव्वहि दिवें दिवें धुव्वहि चमर-सहासेंहिँ दिवें दिवें लोयहिँ वुच्चहि राणउ तं णिसुणेवि वलेण पजम्पिउ . जामि माएँ दिढ हियवएँ होज्जहि
वलु णिय-णिलउ पराइउ ताहिँ॥1॥ पुणु विहसेवि वुत्तु पिय-वायएँ॥2॥ अज्जु काइँ अणुवाहणु पाऍहिँ॥3॥
अज्जु काइँ थुन्वन्तु ण सुव्वहि॥4॥ . अज्जु काइँ तउ को वि ण पार्सेहिँ।।5।।
अज्जु काइँ दीसहि विदाणउ'॥6॥ 'भरहहों सयलु वि रज्जु समप्पिउ॥7॥ जं दुम्मिय तं सव्वु खमेज्जहि॥8॥
घत्ता
जे आउच्छिय माय अपराइय महएवि
"हा हा पुत्त' भणन्ती। महियले पडिय रुयन्ती॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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