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________________ तुम EER (तुम्ह) 6/2 स (दो) 6/2 वि दोनों में अव्यय (हो) विधि 3/1 अक (रण) 1/1 (तिविह) 1/1 वि तीन प्रकार का [(धम्म)-(णाअ) 3/1] धर्म और न्याय से (णिउत्तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक निर्धारित रणु युद्ध तिविहु धम्मणाएण णिउत्तउ 17.10 पहिलउ अवरोप्परु दिट्टि दृष्टि धरह (पहिल-अ) 1/1 वि (दे) 'अ' स्वार्थिक पहले (अवरोप्पर) 2/1 वि एक दूसरे पर (दिट्ठि) 2/1 (धर) विधि 2/2 सक डालो अव्यय मत [(पत्तल)-(पत्तण)-(चलण) 2/1] पलकों के बालरूपी, बालों के अग्रभाग का हलन-चलन (कर) विधि 2/2 सक करो मा पत्तलपत्तणचलणु करह बीयउ (बीयअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक हंसावलिमाणिएण [(हंस)+ (आवलि)+(माणिएण)] [[(हंस)-(आवलि)-(माण-माणिअ)] हंस की, कतारों से, भूक 3/1] सम्मानित अवरोप्परु (अवरोप्पर) 2/1 वि (क्रिवि) एक दूसरे के विरुद्ध 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) 2. इस शब्द (परस्पर) के 'आपस में' 'एक दूसरे के विरुद्ध' आदि अर्थ में कर्म, करण और अपादान के एकवचन के रूप क्रिया-विशेषण की भाँति प्रयुक्त होते हैं (आप्टे, संस्कृत-हिन्दी कोश)। अपभ्रंश काव्य सौरभ 242 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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