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________________ हरिसियमणाइँ णियगेहु गयइँ विण्णि हर्षित मनवाले निज घर को चले गये [[(हरिसिय) भूकृ-(मण) 1/2] वि] [(णिय) वि-(गेह) 2/1] (गय) भूकृ 1/2 अनि । (वि) 1/2 वि अव्यय (जण) 1/2 दोनों वि ही जणाइँ मनुष्य 12. गोवउ गोप (गोवअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक अव्यय (णियाण) 3/1 निदानसहित णियाणे तहिँ मरेवि वहाँ मरकर थिउ रहा अव्यय (मर+एवि) संकृ (थिअ) भूकृ 1/1 अनि [(वणि)-(पिया-पिय)-(उयरअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक (अवयर+एवि) संकृ वणिपियउयरए वणिक की पत्नी के उदर में आकर अवयरेवि आकर 13. तहिँ गब्भए अब्भए णाइँ रवि सूर्य कमलिणिदले णावइ अव्यय वहाँ (गब्भअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक गर्भ में (अब्भअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक आकाश में अव्यय की तरह (रवि) 1/1 [(कमलिणि)-(दल) 7/1] कमलिनी के पत्ते पर अव्यय की तरह (जल) 1/1 जल [(सिप्पि)-(उडअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक] सिप्पिदल में (णिविडअ) 7/1 वि 'अ' स्वार्थिक सघन (ठिअ) भूकृ 1/1 अनि (सह) व 3/1 अक शोभता है (शोभयमान हुआ) अव्यय की तरह जलु सिप्पिउडए णिविडए ठिउ स्थित सहइ 289 अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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