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________________ काई वढ तणु उप्पर अणुराउ 15. जसु मणि णाणु ण विप्फुरइ कम्महं ] . . t E हेउ करंतु मुणि पावइ सुक्खु ण वि सयलई सत्थ मुणंतु 16. बोहिविवज्जिउ जीव तुहुं विवरिउ तच्चु 363 Jain Education International अव्यय (वढ ) 8 / 1 (तणु) 6 / 1 अव्यय ( अणुराअ) 1/1 (ज) 6/1 स (मण) 7/1 ( णाण) 1 / 1 अव्यय (विप्फुर) व 3 / 1 अक (कम्म) 6/2 (हेउ) 2/2 ( कर-करंत) वकृ 1 / 1 (त) 1 / 1 सवि ( मुणि) 1/1 (पाव) व 3 / 1 सक (सुक्ख ) 2 / 1 अव्यय अव्यय (सयल) 2 / 2 वि (सत्थ) 2/2 (मुण - मुणंत) वकृ 1/1 [ ( बोहि) - (विवज्ज - विवज्जिअ ) भूक 8 / 1 ] (जीव ) 8 / 1 (तुम्ह) 1 / 1 स (विवरिअ ) 2 / 1 वि ( तच्च) 2 / 1 For Private & Personal Use Only क्यों मूर्ख शरीर के ऊपर आसक्ति जिसके हृदय में ज्ञान नहीं फूटता है कर्मों के कारणों को करता हुआ वह मुनि पाता है सुख नहीं भी सभी शास्त्रों को जानते हुए आध्यात्मिक ज्ञान (के बिना) हे जीव तू असत्य तत्त्व को रहित अपभ्रंश काव्य सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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