________________
सरहसु रहसें कहिउ पिएँ पेक्खहि अज्जवि सिद्धिएण निहाणें किं पि न लेमि करेमि न खोयणु अह कलसेसु छुर्हेवि एक्केक्कर अणहिँ पव्वें पुणु वि पहें दिट्ठइ निहिहिँ रयणु एक्केक्कउ लइयउ अवरहि समऍ जाम उग्घाडइ अच्छउ रयणसमूहु सरूवउ
धत्ता
-
64
तं निसुणेवि कुमारें वुच्चइ रयणिहि नयरें सियालु पइट्ठउ भक्खतेण दंत - वर्णे काणिउँ हुऍ पहाऍ वस - आमिसमुज्झिउ भयकंपिरु नीसरिवि न सक्कउ
Jain Education International
मइँ सम पुण्णवंतु को लक्खहि ॥14॥ रयमि उवा अवरु मइनाणें ॥15 ॥ होसइ कव्वाडेण वि भोयणु ॥16॥ बहु दविणासऍ गड्ढेवि मुक्कउ ॥17॥ पूरहु केम हियऍ न पइट्ठइ ॥ 18 ॥ सुणउ करेंवि सव्वु परिचयउ ॥19॥ रित्त नियवि करहिं सिरु ताडइ ॥ २० ॥ सो वि विडु मूलि जो रूवउ ॥21॥
साहीणलच्छि नउ भुंजइ महइ समग्गल सग्गदिहि | संखिणिहि जेम वरइत्तों करें लग्गेसइ सुण्णनिहि ॥ 22 ॥
9.11
विसु साहीणु किं न लहु मुच्च ॥1॥ मुउ बलद्दु रच्छामुहें दिट्ठउ ॥2॥ रयणिविरामपमाणु न जाणिउँ ॥3॥ जणसंचारवमालें बुज्झिउ ॥4॥ चिंतियमंतु पडेविणु थक्क ||5||
For Private & Personal Use Only
अपभ्रंश काव्य सौरभ
www.jainelibrary.org