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________________ भयकंपिरु नीसरिवि सक्कउ चिंतियमंतु पडेविणु [(भय)-(कंपिर) 1/1 वि] भय से कंपनशील (नीसर+इवि) संकृ निकलकर अव्यय नहीं (सक्कअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक समर्थ हुआ [(चिंतिय) भूकृ-(मंत) 1/1] विचारी हुई, योजना (पड+एविणु) संकृ पड़कर (थक्कअ) भूक 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक निश्चेष्ट हुआ थक्कउ 6. अप्पउ अपने को मुयउ करिवि दरिसावमि मरा हुआ बनकर दिखलाता हूँ अवश्य ही वन को किर (अप्पअ) 2/1 'अ' स्वार्थिक (मुयअ) भूक 2/1 'अ' स्वार्थिक (कर+इवि) संकृ (दरिस+आव) प्रे. व 1/1 सक अव्यय (वण) 2/1 अव्यय [(निसा)+(आगमि)] [(निसा)-(आगम) 7/1] (पाव) व 1/1 सक वणु -11.11111tlari 1.1111#1.11 फिर पुणुवि निसागमि रात्रि आने पर पावमि चला जाता हूँ (जाऊँगा) 1. दीसइ दिवसि मिलिय (दीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि (दिवस) 7/1 (मिल+य) संकृ [(पुर)-(लोअ) 3/1] (एक्क) /1 वि (नर) 31 [(पवड-पंवड्डिय) भूकृ-(रोअ) 3/1] देखा जाता है (देखा गया) दिन (होने) पर मिलकर नगर के लोगों द्वारा पुरलोए एक्कें नरेण एक मनुष्य के द्वारा बढ़े हुए रोग के कारण पववियरोएं ओसहत्थु औषधि के लिए [(ओसह+अत्थु' ओसहत्थ) 1/1] अत्थ हेत्वर्थक परसर्ग। 1. अपभ्रंश काव्य सौरभ 254 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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