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________________ एयहु इन से मारणत्थि मारने के इच्छुक (एया) 5/2 सवि [(मारण)+ (अत्थि)] [(मारण)-(अत्थि) 1/2 वि] अव्यय (आव) व 3/2 सक [(वच्छ)-(उल) 2/2] अव्यय यहाँ आवहिँ वच्छउलइँ णउ आते हैं (आये हैं) बछड़ों के समूहों को नहीं कहीं भी पाते हैं (पाया) अव्यय कत्थवि पावहिँ (पाव) व 3/2 सक मणि मंतिवि पुणु भयतट्ठउ (इय) 2/1 सवि यह (मण) 7/1 मन में (मंत+इवि) संकृ विचारकर अव्यय फिर [(भय)-(तट्ठअ) भूकृ 1/1 अनि भय से काँपा 'अ' स्वार्थिक अव्यय पीछे की ओर (वल+इवि) संकृ मुड़कर (णिअ+इवि) संकृ देखकर (वण) 7/1 जंगल में (णट्ठअ) भूक 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक छिप गया पच्छउ वलिवि णिएवि वणि णट्ठउ ते (त) 1/2 सवि (बोल्ल+आव) प्रे. व 3/2 सक बोल्लावहिँ बुलाते (थे) अव्यय . गिहि (गिह) 7/1 घर में 1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) 309 अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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