________________
3.21
जंपइ भो बुज्झहि जणणि सारु को कासु णाहु को कासु भिच्चु । मोहें बद्धउ मे-मे करेइ अइआरु ण किज्जइ मोहु अंबि में लब्भहिँ इच्छिय सयलसुक्ख खण भंगुरु सयलु म करहि सोउ सद्दहहि जिणायमु सरिवि अज्जु अवहिए जाणिवि हउँ एत्थु आउ इय वयणु सुणिवि उवसंतमोह देवे पुणु णिय-मुणिणाह पासि ति पायहिणि देप्पिणु गुरुपयाइँ
जिणवयणु दयावरु जणहँ तारु॥1॥ जाणहि संसारु जि मणि अणिच्चु॥2॥ आउक्खए कु वि कासु ण धरेइ ॥3॥ जिणधम्मु गहहि मा इह बिलंबि।।4।। छेइज्जहिँ अँ भवदुक्खलक्खा5॥ महु पुणु पेच्छहि संजणिय मोउ॥6॥ हुउ पढम-सग्गि सुर देवपुज्जु॥7॥ तुव बोहणत्थि पयडिय-सुवाउ॥8॥ कर-चरण मुइवि जाया सुबोह।।9।। वरु गुह-अब्भंतरि वि गय तासि॥10॥ देवें वंदिय ता गरहियाइँ॥11॥
घत्ता
-
बहु थोत्तु पयासिवि चिरकह भासिवि तुम्ह पसाएँ देव पउ। मइँपाविउ धण्णउ बहु-सुह छण्णउ एम भणिवि पणवाउ कउ॥12॥
94
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org