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जं पाउस-णरिन्दु गलगज्जिउ गम्पिणु मेह-विन्दें आलग्गउ जं विवरम्मुह चलिउ विसालउ धगधगधगधगन्तु उद्धाइउ जलजलजलजलजल पचलन्तउ धूमावलि-धयदण्डुब्र्भेप्पिणु झडझडझडझडन्तु पहरन्तउ मेह-महागय-घड विहडन्तउ
धूली-रउ गिम्भेण विसज्जिउ॥1॥ तडि-करवाल-पहारेंहिँ भग्गउ॥2॥ उट्ठिउ ‘हणु' भणन्तु उण्हालउ॥3॥ हसहसहसहसन्तु संपाइउ॥4॥ जालावलि-फुलिङ्ग मेल्लन्तउ॥३॥ वर-वाउल्लि-खग्गु कड्ढेप्पिणु॥6॥ तरुवर-रिउ-भड-थड भज्जन्तउ॥7॥ जं उण्हालउ दिट्ठ भिडन्तउ॥8॥
घत्ता -
धणु अप्फालिउ पाउसेण तडि-टङ्कार-फार दरिसन्ते । चोऍवि जलहर-हत्थि-हड णीर-सरासणि मुक्क तुरन्ते॥७॥
28.3
जल-वाणसणि-घायहिँ धाइउ ददुर रडेवि लग्ग णं सज्जण णं पूरन्ति सरिउ अक्कन्दें णं परहुय विमुक्क उग्रोसें णं सरवर वहु-अंसु-जलोल्लिय णं उण्हविअ दवग्गि विओएं
गिम्भ-णराहिउ रणे विणिवाइउ॥1॥ णं णच्चन्ति मोर खल दुज्जण ॥2॥ णं कई किलिकिलन्ति आणन्दें॥3॥ णं वरहिण लवन्ति परिओसें॥4॥ णं गिरिवर हरिसें गजोल्लिय॥5॥ णं णच्चिय महि विविह-विणोएं॥6॥
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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