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________________ किह अव्यय क्यों हणइ मारता है मूद मूर्ख किउ (हण) व 3/1 सक (मूढ) 1/1 वि (कि-किंअ) भूकृ 1/1 (त) 3/2 स (किं) 1/1 स किया गया उनके द्वारा क्या तेहिँ-तेहिं काइँ-काई 22. पारद्धिरत्तु शिकार का प्रेमी चक्कवइ चक्रवर्ती णरए' [(पारद्धि)-(रत्त) भूकृ 1/1 अनि] (चक्कवइ) 1/1 (णरअ) 7/1 (गअ) भूकृ 1/1 अनि (बंभयत्त) 1/1 नरक में (को) गउ गया बंभयत्तु ब्रह्मदत्त 23. चल चंचल चोरु चोर गुरुमायवप्पु (चल) 1/1 वि (चोर) 1/1 (धिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि [(गुरु)-(माया) -(बप्प) 2/1] (माण) व 3/1 सक अव्यय (इ8) भूकृ 1/1 अनि निर्लज्ज गुरु, माँ और बाप को मानता है माणइ नहीं आदरणीय 24. णियभुयवलेण वंच [(णिय) वि-(भुय)-(बल) 3/1] (वंच) व 3/1 सक (त) 2/2 स (अवर) 2/2 निज भुजाओं के बल से ठगता है उनको अवर दूसरों को अव्यय कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135). माया-माय, समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व हो जाते हैं। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4) 2. अपभ्रंश काव्य सौरभ 268 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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