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________________ पिसुणालाव-भरीसिएण वह दुक्कर उल्हाविज्जइ [(पिसुण)+ (आलाव)+ (भर)+ (ईसिएण)] चुगलखोरों के ईर्ष्या से भरे [(पिसुण)-(आलाय)-(भर) वि-(ईसिअ) हुए आलाप से 3/1] (त) 1/1 सवि क्रिविअ कठिनाई से [(उल्हा- उल्हावि- उल्हाविज्ज) प्रे व कर्म शान्त किया जाता है 3/1 सक [(मेह)-(सअ) 3/1] सैंकड़ों मेहों से अव्यय (वरिस) 3/1 'इअ' स्वार्थिक बरसने से (द्वारा) मेह-सएण वि वरिसिएण भी 83.8 सीय सीता नहीं भीय डरी (सीया) 1/1 अव्यय (भीय) भूकृ 1/1 अनि [(सइत्तण)-(गव्व) 3/1] (वल+एवि) संकृ (प-वोल्ल) भूकृ 1/1 (मच्छर)-(गव्व)3/1 सइत्तण-गव्वे वलेवि सतीत्व के गर्व के कारण मुड़कर पवोल्लिय कहा गया मच्छर-गव्वे क्रोध और गर्व से पुरुष पुरिस णिहीण होन्ति (पुरिस) 1/2 (णिहीण) 1/2 वि (हो) व 3/2 अक (गुणवन्त) 1/2 वि अव्यय (तिया) 6/1 गुणवन्त गुणवान चाहे वि तियहे स्त्री के द्वारा कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) 197 अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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