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________________ पत्तिज्जन्ति (ण) 1/2 सवि (प्रा) (पत्ति-पत्तिज्ज) व कर्म 3/2 सक (मर-मरन्त-- (स्त्री) मरन्ता) वकृ 1/1 अव्यय मरन्त विश्वास किये जाते हैं मरती हुई चाहे खडु लक्कडु सलिलु वहन्तियहे पउराणियहे कुलुग्णयहे (खड) 2/1 घास-फूस को (लक्कड) 2/1 लकड़ी को (सलिल) 1/1 पानी (वह-वहन्त- (स्त्री) वहन्ति-वहन्तिय) ले जाती हुई वक 6/1 'य' स्वार्थिक (पउराण-पउराणिय) 6/1 वि 'य' स्वा. प्राचीन (का) [(कुल) + (उग्गयहे)] [(कुल)-(उग्गया) 6/1 वि] पवित्र (का) (रयणायर) 1/1 समुद्र (खार) 2/2 खार को (दा-देन्त--देन्तअ) वकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक देता हुआ अव्यय तो भी अव्यय नहीं (थक्क) व 3/1 अक थकता है (णम्मया) 6/1 नर्मदा का रयणायरु खार देन्तउ तो वि थक्कइ णम्मयहे 83.9 साणु (साण) 1/1 कुत्ता नहीं अव्यय केण (क) 3/1 किसी के द्वारा वि अव्यय . भी जणेण (जण) 3/1 जन के द्वारा अपभ्रंश काव्य सौरभ 198 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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