SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूल में (मूल) 7/1 (ज) 1/1 सवि (रूवअ) 1/1 रूवउ रुपया 22. साहीणलच्छि स्वाधीन लक्ष्मी को नउ नहीं भुंजइ भोगता है महइ [(साहीण) वि-(लच्छी) 2/1] अव्यय (भुंज) व 3/1 सक (मह) व 3/1 सक (समग्गल) 2/1 वि [(सग्ग)-(दिहि)12/1] (संखिणि) 6/1 इच्छा करता है समग्गल पूर्ण सग्गदिहि संखिणिहि मोक्ष सुख की (को) संखिणी के जिस प्रकार जेम अव्यय दूल्हे के वरइत्तहो करे लग्गेसइ सुण्णनिहि (वरइत्त) 6/1 (कर) 7/1 (लग्ग) भवि 3/1 अक [(सुण्ण)-(निहि) 1/1] हाथ में लगेगी शून्यनिधि 9.11 उसको निसुणेवि सुनकर कुमार के द्वारा कुमारें वुच्चइ (त) 2/1 स (निसुण+एवि) संकृ (कुमार) 3/1 (वुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि (विस) 1/1 (साहीण) 1/1 वि अव्यय कहा जाता है (कहा गया) विष विसु साहीणु अपने पास क्या अव्यय नहीं दिहि-सुख। अपभ्रंश काव्य सौरभ 252 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy