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________________ 11. पाहणु पत्थर लेकर लेवि दंत दाँत किर (पाहण) 2/1 (ले+एवि) संकृ (दंत) 2/1 अव्यय (चूर) व 3/1 सक (जाण+इवि) संकृ (जंबुअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (हियअ) 7/1 (बिसूर=विसूर) व 3/1 अक पादपूरक तोड़ता है जाणिवि जानकर जंबुउ गीदड़ हियइ मन (हृदय में) खेद करता है विसूरइ 12. खंडियपुच्छ-कण्ण मण्णिय तिणु दुक्करु जीवियास [(खंडिय) भूकृ-(पुच्छ)-(कण्ण) 1/1] काटे गये, पूँछ कान (मण्ण-मण्णिय) भूकृ 1/1 मानी गई (तिण) 1/1 वि तुच्छ (दुक्कर) 1/1 वि कठिन [(जीविय)+ (आस)] जीने की आशा (उम्मीद) [(जीविय)-(आसा) 1/1] (दंत) 3/2 दाँतों के अव्यय बिना दंतहिँ विणु 13. चिंतवि सोचकर मुक्कु म्लान धाउ जव-पाणे (चिंत+अवि) संकृ (मुक्क) भूकृ 1/1 अनि (धा-धाअ) भूक 1/1 [(जव)-(पाण) 3/1] (लइ-लइअ) भूकृ 1/1 (कंठ) 7/1 [(हरि)-(सरिस) 3/1 वि] (साण) 3/1 लइउ कंठे भागा वेग से, प्राणसहित पकड़ लिया गया मुँह (कंठ) में सिंह के समान कुत्ते के द्वारा हरिसरिसें साणे 14. मारिउ (मार-मारिअ) भूकृ 1/1 मार दिया गया अपभ्रंश काव्य सौरभ 256 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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